1935 का भारत शासन अधिनियम
नमस्कार पाठकों ! यदि आप भारतीय इतिहास, स्वतंत्रता संग्राम या ब्रिटिश शासन की नीतियों में रुचि रखते हैं, तो आज हम बात करेंगे 1935 के भारत शासन अधिनियम (Government of India Act 1935) की। यह अधिनियम ब्रिटिश भारत की संवैधानिक विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी था, जो गोलमेज सम्मेलनों के आधार पर तैयार किया गया। इस लेख में हम अधिनियम की विशेषताओं, प्रावधानों, आलोचना और ऐतिहासिक संदर्भ को विस्तार से समझेंगे। यह जानकारी UPSC, SSC या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी साबित होगी। चलिए शुरू करते हैं!
अधिनियम का पृष्ठभूमि और निर्माण
1930, 1931 और 1932 के गोलमेज सम्मेलनों में हुए विचार-विमर्श के आधार पर मार्च 1933 में ब्रिटिश सरकार ने एक श्वेत-पत्र (White Paper) प्रकाशित किया। इसमें प्रांतों में उत्तरदायी शासन और केंद्र में आंशिक उत्तरदायी शासन की स्थापना का सुझाव दिया गया था। इन्हीं सुझावों को अपनाते हुए ब्रिटिश संसद ने 1935 का भारत शासन अधिनियम पारित किया। यह अधिनियम 1 अप्रैल 1937 से लागू हुआ, लेकिन इसका संघीय हिस्सा कभी लागू नहीं हो सका।
यह अधिनियम भारतीय संविधान के निर्माण में आधारशिला साबित हुआ, क्योंकि स्वतंत्र भारत के संविधान में कई प्रावधान इसी से प्रेरित हैं।
अधिनियम की मुख्य विशेषताएं
यह अधिनियम ब्रिटिश भारत की शासन व्यवस्था में बड़े बदलाव लाया। आइए इसकी प्रमुख विशेषताओं को बिंदुवार समझते हैं:
1. प्रस्तावना की अनुपस्थिति
- अधिनियम में कोई नई प्रस्तावना नहीं जोड़ी गई, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारत के लिए कोई नई नीति घोषित नहीं की।
- 1919 के अधिनियम की प्रस्तावना को ही इसमें जोड़ दिया गया, जो भारत में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना को अंतिम लक्ष्य बताती थी।
- इससे भारतीयों को आश्वासन दिया गया कि ब्रिटिश लक्ष्य स्वशासन है, लेकिन वास्तव में यह केवल दिखावा था।
2. लंबा और जटिल दस्तावेज
- यह अधिनियम अब तक का सबसे लंबा संवैधानिक दस्तावेज था: 14 भाग, 321 धाराएं और 10 परिशिष्ट।
- इसमें केंद्र और प्रांतों की सरकारों का विस्तृत वर्णन था, जो इसे जटिल बनाता था।
3. ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता
- अधिनियम में संशोधन, सुधार या रद्द करने का अधिकार केवल ब्रिटिश संसद के पास था।
- प्रांतीय विधानमंडलों या संघीय व्यवस्थापिका को कोई परिवर्तन का अधिकार नहीं दिया गया।
- इससे भारतीय भाग्य का अंतिम निर्णय ब्रिटिश हाथों में रहा।
4. प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना
- अधिनियम की सबसे बड़ी उपलब्धि: प्रांतों में द्वैध शासन (Dyarchy) को समाप्त कर पूर्ण स्वायत्तता दी गई।
- प्रांतों को आंतरिक मामलों में स्वतंत्रता मिली, जिससे वे अपने फैसले खुद ले सकते थे।
- यह 1919 के अधिनियम से आगे की दिशा थी।
5. केंद्र में द्वैध शासन
- प्रांतों से द्वैध शासन हटाया गया, लेकिन केंद्र में लागू किया गया।
- केंद्र के विषयों को दो भागों में बांटा: रक्षित विषय (रक्षा, विदेशी मामले, चर्च संबंधी मामले, कबीलों के मामले) – गवर्नर जनरल की इच्छा से संचालित।
- हस्तांतरित विषय – गवर्नर जनरल को मंत्रिपरिषद की सहायता से संचालित, मंत्री विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी।
- मंत्रियों की संख्या अधिकतम 10, गवर्नर द्वारा नियुक्ति और पदमुक्ति।
6. संघीय शासन व्यवस्था का प्रस्ताव
- केंद्र में ब्रिटिश प्रांतों और देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनाने का प्रावधान।
- संघ में 11 ब्रिटिश गवर्नर प्रांत, 6 चीफ कमिश्नर प्रांत और देशी रियासतें शामिल होनी थीं।
- लेकिन रियासतों के शामिल न होने से संघ कभी स्थापित नहीं हुआ।
7. विषयों का विभाजन
- विषयों को तीन सूचियों में बांटा:
- संघीय सूची: 59 विषय (केंद्र के अधीन)।
- प्रांतीय सूची: 54 विषय (प्रांतों के अधीन)।
- समवर्ती सूची: 36 विषय (दोनों के साझा)।
- यह विभाजन आज के भारतीय संविधान की सूचियों से मिलता-जुलता है।
8. संघीय न्यायालय की स्थापना
- भारत में पहली बार संघीय न्यायालय बनाया गया, जो केंद्र और इकाइयों के विवाद सुलझाता।
- लेकिन यह सर्वोच्च नहीं था; निर्णयों के खिलाफ प्रिवी काउंसिल में अपील संभव।
- न्यायालय का मुख्यालय दिल्ली में था।
9. संरक्षण और आरक्षण
- प्रांतीय स्वराज और केंद्र में उत्तरदायी शासन पर कई प्रतिबंध।
- विशेष हितों (अल्पसंख्यक, ब्रिटिश हित) की रक्षा के लिए गवर्नर जनरल और गवर्नरों को विशेष शक्तियां।
- इससे शासन पर ब्रिटिश नियंत्रण बना रहा।
10. विधानमंडलों और मताधिकार का विस्तार
- केंद्र में: विधानसभा (275 सदस्य), राज्यसभा (260 सदस्य)।
- प्रांतों में: विधानमंडलों का आकार दोगुना, 6 प्रांतों में द्विसदनीय।
- मताधिकार: प्रांतों में 10% जनता को वोट का अधिकार (पहले से विस्तार)।
- सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति बरकरार, हरिजनों के लिए भी अलग सीटें।
11. भारतीय परिषद की समाप्ति
- भारतीय परिषद समाप्त; सचिव के लिए 3-6 परामर्शदाता नियुक्त।
- इससे ब्रिटिश नियंत्रण कम हुआ, लेकिन वास्तव में शक्ति गवर्नर के पास।
12. बर्मा, बरार और अदन का पृथक्करण
- बर्मा भारत से अलग।
- अदन को ब्रिटिश उपनिवेश कार्यालय के अधीन।
- बरार को मध्य प्रांत का हिस्सा बनाया, निजाम की नाममात्र सत्ता।
अधिनियम की आलोचना और सीमाएं
1935 का अधिनियम लागू तो हुआ, लेकिन केवल प्रांतीय हिस्सा। संघीय प्रावधान कभी लागू नहीं हुए। भारतीय नेताओं ने इसकी कड़ी आलोचना की:
- मोहम्मद अली जिन्ना: इसे "पूर्ण रूप से रद्दी, बुनियादी रूप से बुरा और अस्वीकार्य" बताया।
- पंडित मदन मोहन मालवीय: "ऊपर से लोकतांत्रिक, लेकिन अंदर से खोखला।"
- पंडित जवाहरलाल नेहरू: "दासता का नया चार्टर।"
दोष: ब्रिटिश सर्वोच्चता, अपूर्ण स्वायत्तता, रियासतों की अनदेखी, सांप्रदायिक विभाजन। यह अधिनियम भारतीयों को सीमित शक्ति देता था, लेकिन अंतिम नियंत्रण ब्रिटिश हाथों में।