क्रिप्स मिशन 1942 : प्रस्ताव, कारण और अस्वीकृति
नमस्ते पाठकों ! अगर आप भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में रुचि रखते हैं, तो क्रिप्स मिशन (Cripps Mission) एक ऐसा अध्याय है जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय नेताओं के बीच के तनाव को उजागर करता है। यह मिशन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत को स्वायत्तता देने के ब्रिटिश प्रयास का हिस्सा था, लेकिन अंततः असफल रहा। इस ब्लॉग पोस्ट में हम क्रिप्स मिशन के उद्देश्य, प्रस्तावों, और अस्वीकृति के कारणों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। यह जानकारी छात्रों, इतिहास प्रेमियों और UPSC जैसी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों के लिए विशेष रूप से उपयोगी होगी।
अगर आप क्रिप्स मिशन के बारे में अधिक जानना चाहते हैं, तो अंत तक पढ़ें और अपनी राय कमेंट्स में शेयर करें!
क्रिप्स मिशन का पृष्ठभूमि और आगमन
क्रिप्स मिशन 22 मार्च 1942 को भारत पहुंचा। यह एक सदस्यीय आयोग था, जिसका नेतृत्व सर स्टेफोर्ड क्रिप्स (Sir Stafford Cripps) ने किया। सर स्टेफोर्ड ब्रिटिश युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य थे और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत भेजा था।
इस मिशन को भेजने के प्रमुख कारण थे:
- ब्रिटिश जनमत का बढ़ता दबाव।
- विश्व के अन्य राष्ट्रों (जैसे अमेरिका और चीन) का दबाव।
- जापान की सैन्य विजय, जो भारत की सुरक्षा को खतरे में डाल रही थी।
सर स्टेफोर्ड क्रिप्स ने भारत में 20 दिनों तक रहकर विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं से मुलाकात की। उन्होंने कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, दलित वर्ग के प्रतिनिधियों, उदारवादी नेताओं और देशी रियासतों के नरेशों से बातचीत की। इन चर्चाओं के आधार पर, उन्होंने भारत के वैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए कुछ प्रस्ताव पेश किए, जो "क्रिप्स प्रस्ताव" के नाम से प्रसिद्ध हुए।
क्रिप्स प्रस्ताव: प्रमुख बिंदु
क्रिप्स प्रस्ताव भारत को स्वायत्तता देने का एक ब्लूप्रिंट था, लेकिन इसमें कई शर्तें थीं। आइए इन्हें विस्तार से समझें:
- भारतीय संघ की स्थापना: ब्रिटिश सरकार एक ऐसे भारतीय संघ की स्थापना करना चाहती थी, जिसकी स्थिति ब्रिटिश सम्राट के अधीन पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज (Dominion Status) की होगी। संघ को ब्रिटेन से अलग होने की स्वतंत्रता भी होगी।
- संविधान सभा का गठन: युद्ध समाप्ति के तुरंत बाद, भारत के लिए एक संविधान सभा बनाई जाएगी। इसमें ब्रिटिश भारतीय प्रांतों और देशी रियासतों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।
- संविधान की स्वीकृति और अस्वीकृति का अधिकार: ब्रिटिश सरकार संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान को स्वीकार करेगी, लेकिन यदि कोई प्रांत या रियासत इसे पसंद नहीं करती, तो वे अपनी वर्तमान संवैधानिक स्थिति बनाए रख सकेंगी। ऐसे प्रांतों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार होगा, और उनकी स्थिति भारतीय संघ के समान होगी। (यह बिंदु अप्रत्यक्ष रूप से विभाजन की संभावना को जन्म देता था।)
- संविधान सभा और ब्रिटिश सरकार के बीच संधि: अन्य संस्थाओं (जैसे अल्पसंख्यकों) की सुरक्षा के लिए एक संधि की जाएगी।
- भारत की सुरक्षा: नवीन संविधान लागू होने तक, ब्रिटिश सरकार भारत की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार रहेगी।
- भारतीय नेताओं की भागीदारी: प्रस्ताव के अंत में कहा गया कि ब्रिटिश सरकार चाहती है कि भारतीय जनता के विभिन्न वर्गों के नेता देश, ब्रिटिश राष्ट्रमंडल और मित्र राष्ट्रों के विचार-विमर्श में प्रभावपूर्ण ढंग से भाग लें। यह भारत की स्वाधीनता के लिए महत्वपूर्ण है।
ये प्रस्ताव भारत को युद्ध के दौरान सहयोग प्राप्त करने के लिए दिए गए थे, लेकिन वे भारतीय नेताओं की अपेक्षाओं से काफी कम थे।
कांग्रेस द्वारा क्रिप्स प्रस्तावों की अस्वीकृति के कारण
कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग से मेल नहीं खाते थे। प्रमुख कारण निम्नलिखित थे:
- पाकिस्तान की मांग को अप्रत्यक्ष स्वीकृति: प्रस्तावों में प्रांतों को अलग होने का अधिकार दिया गया, जो मुस्लिम लीग की पाकिस्तान मांग को मजबूत करता था।
- सुरक्षा के प्रश्न पर असहमति: कांग्रेस भारत की सुरक्षा पर ब्रिटिश नियंत्रण को स्वीकार नहीं करना चाहती थी।
- पूर्ण स्वतंत्रता की कमी: कांग्रेस संपूर्ण भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता मांग रही थी, लेकिन प्रस्तावों में केवल औपनिवेशिक स्वराज की बात थी—और वह भी बिना किसी निश्चित तिथि के। महात्मा गांधी ने इन्हें "दिवालिया बैंक का भविष्य की तिथि में भुनने वाला चेक" कहा था।
मुस्लिम लीग द्वारा अस्वीकृति के कारण
मुस्लिम लीग ने भी प्रस्तावों को ठुकरा दिया, मुख्यतः क्योंकि उनमें पाकिस्तान के निर्माण की स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी। लीग पाकिस्तान की मांग पर अड़ी हुई थी, और प्रस्तावों में केवल अप्रत्यक्ष संकेत थे, जो पर्याप्त नहीं थे।