1857 का विद्रोह: कारण, प्रसार, दमन और परिणाम
भारी-भरकम कर, जमींदारों के अत्याचार और अंग्रेजों की भू-नीतियों के कारण किसान समुदाय निम्नतम स्थिति में पहुंच गया। कच्चे माल के निर्यात में वृद्धि के लिए कृषि के वाणिज्यीकरण पर बल दिया गया, जिसमें नील, कपास, अफीम, चाय, जूट, कॉफी आदि के उत्पादन हेतु कृषकों को मजबूर किया गया।
कृषि के वाणिज्यीकरण से खाद्यान्न उत्पादन में कमी हुई, जिससे अकाल की स्थिति में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप, अंग्रेजों के विरुद्ध जन आक्रोश बढ़ता गया, जो 1857 के विद्रोह के रूप में उभरा। इस विद्रोह को आरंभ 10 मई 1857 ई. को मेरठ में कंपनी के सिपाहियों द्वारा शुरू किया गया, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झाँसी, दिल्ली, अवध आदि जगहों तक फैल गया।
इस विद्रोह की शुरुआत एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परंतु कालांतर में इसका स्वरूप ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक ‘जन-विद्रोह’ का हो गया।
1857 के विद्रोह के प्रमुख कारण
1857 का विद्रोह अचानक नहीं हुआ; इसके पीछे कई राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सैन्य कारण थे। नीचे इन्हें विस्तार से समझते हैं:
1. राजनीतिक एवं प्रशासनिक कारण
- 1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनीतिक कारण वेलेजली की सहायक संधि एवं डलहौजी की हड़प नीति (व्यपगत का सिद्धांत) थी।
- लॉर्ड डलहौजी द्वारा विलय किए गए राज्य:
राज्य | विलय का वर्ष |
---|---|
सतारा | 1848 |
जैतपुर | 1849 |
संबलपुर | 1849 |
बघाट | 1850 |
उदयपुर | 1852 |
झाँसी | 1853 |
नागपुर | 1854 |
करौली | 1855 |
अवध | 1856 |
नोट:
- डलहौजी ने 1855 ई. में करौली को भी व्यपगत नीति (हड़प नीति) के तहत विलय किया, परंतु बॉर्ड ऑफ कंट्रोल द्वारा इसे मान्यता नहीं दी गई।
- अवध का विलय कुप्रशासन के आधार पर किया गया।
रियासतों के विलय के अलावा पेशवा (नाना साहब) की पेंशन का निलंबन भी प्रमुख कारण बना। भारतीय कर्मचारियों के साथ भेदभावपूर्ण नीति अपनाते हुए, भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं से वंचित किया गया तथा उच्च पदों पर ब्रिटिश लोगों को नियुक्त किया गया।
अंग्रेजों की न्याय प्रणाली दोषपूर्ण थी क्योंकि यह पक्षपातपूर्ण, दीर्घावधिक एवं खर्चीली थी। डलहौजी ने तंजौर तथा कर्नाटक के नवाबों की उपाधियाँ समाप्त कर दी तथा बहादुरशाह जफर को अपमानित कर लाल किला खाली करने को कहा। लार्ड कैनिंग ने घोषणा की कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी मुगल सम्राट नहीं, सिर्फ राजा ही कहलाएंगे। इसलिए मुगलों ने क्रांति के समय विद्रोहियों का साथ दिया।
शासन की विदेशी प्रकृति भी असंतोष का प्रमुख कारण बनी।
2. आर्थिक कारण
ब्रिटिशकालीन भू-राजस्व नीतियों जैसे – स्थायी बंदोबस्त, रैय्यतवाड़ी तथा महालवाड़ी व्यवस्था आदि के द्वारा किसानों का शोषण किया गया।
कंपनी की नीतियों ने पारंपरिक उद्योगों (दस्तकारी, हथकरघा उद्योग) को नष्ट करने का प्रयास किया, जिससे इन उद्योगों से जुड़े किसानों की आर्थिक स्थिति सोचनीय हो गई तथा कृषि के वाणिज्यीकरण से खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ।
इनाम आयोग के आधार पर 20,000 जमींदारों की जमीन जब्त कर ली गई, जिससे जमींदार वर्ग से भी असंतोष उभरा।
3. सामाजिक एवं धार्मिक कारण
1813 के चार्टर एक्ट से ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की छूट दी गई, जिसने कालांतर में बेरोजगारों, विधवाओं, जनजातियों व अनाथों का धर्मांतरण करवाया। अत: अंग्रेजों की भेदभाव की नीतियों ने विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार की।
सती प्रथा एवं हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम जैसे अधिनियमों ने भी असंतोष को जन्म दिया।
धार्मिक निर्योग्यता अधिनियम, 1850 द्वारा ईसाई धर्म को ग्रहण करने वाले को पैतृक संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। इससे हिन्दू समाज में असंतोष की भावना का विकास हुआ।
पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया, जिससे भारतीय शिक्षा के पारंपरिक समर्थकों ने विद्रोह के समय विद्रोहियों का समर्थन किया।
सैनिकों को समुद्र पार भेजा जाता था, जो भारतीयों की सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ था।
4. सैन्य कारण
सेना में भारतीय और अंग्रेजी सैनिकों का अनुपात 5:1 था। भारतीय सैनिकों के साथ नस्लीय भेदभाव होता था; भारतीय सैनिकों के योग्य होने के बावजूद वो सूबेदार से बड़े पद पर नहीं पहुंच सकते थे।
भारतीय सैनिकों के साथ वेतन, भत्ते एवं अन्य प्रकार की सेवाओं में विभेद किया जाता था।
1856 ई. में लॉर्ड कैनिंग के समय सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम पारित किया गया, जिसके तहत सैनिकों के लिए अंग्रेजी आदेश द्वारा बंगाल के बाहर भी सैनिक कार्यों के लिए जाने की बाध्यता तय की गई।
5. तात्कालिक कारण
‘ब्राउन बेस’ बंदूक के स्थान पर ‘न्यू इनफील्ड राइफल’ का प्रयोग शुरू किया गया, जिसमें गाय एवं सूअर की चर्बी युक्त कारतूस का प्रयोग किया जाता था। इन कारतूसों के ऊपरी भाग को दाँतों से खोलना पड़ता था, अत: इससे हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों को लगा कि चर्बीदार कारतूस का उपयोग उनके धर्म के विरुद्ध है। इस कारण इस विद्रोह की शुरुआत हुई।
1857 के विद्रोह का आरंभ
29 मार्च, 1857 को चर्बी लगे कारतूस के प्रयोग का विरोध 34वीं नेटिव इन्फैन्ट्री, बैरकपुर के सैनिक मंगल पांडेय ने किया तथा विद्रोह की शुरुआत कर दी। मंगल पांडेय ने सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट बाग एवं मेजर सार्जेन्ट की गोली मारकर हत्या कर दी।
8 अप्रैल 1857 को सैन्य अदालत के निर्णय के बाद मंगल पांडेय को फाँसी की सजा दी गई। (NCERT के अनुसार 29 मार्च 1857 को फाँसी दी गई)। मंगल पांडेय को 1857 की क्रांति का प्रथम शहीद माना गया।
1857 के विद्रोह के समय बैरकपुर (कलकत्ता) में कमांडिंग अधिकारी हैरसे था।
10 मई 1857 को मेरठ छावनी में तैनात भारतीय सेना ने चर्बी युक्त कारतूस के प्रयोग से इंकार कर दिया तथा अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस प्रकार 1857 के विद्रोह का आधिकारिक सूत्रपात हुआ। इस समय मेरठ में सैन्य छावनी के अधिकारी जनरल हेविड थे।
1857 के विद्रोह का प्रसार
मेरठ के विद्रोही जवानों ने 11 मई 1857 को यमुना नदी पार करके सुबह-सुबह ही दिल्ली में प्रवेश किया। विद्रोही जवानों ने दिल्ली में प्रवेश करने के बाद चुंगी-घर को आग लगा कर नष्ट कर दिया, साथ ही अंग्रेजों के राजनीतिक सलाहकार साइमन फ्रेजर की हत्या कर दी तथा शस्त्रागार के अध्यक्ष कर्नल विलोबी को घायल कर दिया, जिसकी बाद में मृत्यु हो गई।
12 मई 1857 को दिल्ली पर अधिकार कर मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर द्वितीय को पुन: भारत का सम्राट तथा क्रांति का नेता घोषित किया।
दिल्ली में मुगल शासक बहादुरशाह द्वितीय को प्रतीकात्मक नेतृत्व दिया गया, जबकि वास्तविक नेतृत्व बख्त खां के पास था। इस विद्रोह के दौरान धीरे-धीरे उत्तर भारत की कई रियासतों के शासक भी विद्रोह का साथ देने को तैयार हो गए।
प्रमुख नेता और स्थान:
- लखनऊ: बेगम हजरत महल
- कानपुर: नाना साहब
- झाँसी: रानी लक्ष्मीबाई
- जगदीशपुर: कुँवर सिंह
- इलाहाबाद: लियाकत अली
- बरेली: खान बहादुर खान
- फैजाबाद: मौलवी अहमदुल्ला
- फतेहपुर: अजीमुल्लाह
- रेवाड़ी: राव तुलाराम
दिल्ली में यह विद्रोह 11-12 मई से लेकर 20 सितम्बर, 1857 तक चला। दिल्ली पर अंग्रेजों ने सितम्बर, 1857 में पुन: नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस दौरान जॉन निकोलसन नामक अंग्रेज अधिकारी मारा गया। बहादुरशाह जफर द्वितीय की गिरफ्तारी हुमायूँ के मकबरे से हुई थी। अंग्रेज अधिकारी हडसन द्वारा बहादुरशाह जफर के दो पुत्रों (मिर्जा मुगल व मिर्जा ख्वाजा सुल्तान) तथा एक पौत्र अबु बक्र की हत्या कर दी गई, जिन्हें हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया।
लखनऊ में विद्रोह
विद्रोह की शुरुआत 4 जून-1857 को हुई, जिसका नेतृत्व अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल ने किया। बेगम हजरत महल अपने पुत्र बिरजिस कादिर को नवाब बनाना चाहती थीं, परंतु अंग्रेजों ने इसे स्वीकार नहीं किया। अत: बेगम हजरत महल ने अपने पुत्र को लखनऊ का नवाब घोषित कर समानांतर सरकार की स्थापना की। इस सरकार में हिन्दुओं और मुसलमानों की समान भागीदारी थी।
यहाँ के अंग्रेज रेजीडेंट हेनरी लारेंस को विद्रोहियों ने मौत के घाट उतार दिया। बाद में सर जेम्स आउट्रम तथा सर हेनरी हैवलॉक ने लखनऊ को जीतने का प्रयास किया, परंतु वे असफल रहे। अंतत: नए ब्रिटिश कमांडर इन चीफ सर कोलिन कैम्पबेल ने गोरखा रेजिमेंट की सहायता से मार्च-1858 ई. में लखनऊ पर कब्जा कर लिया।
कानपुर में विद्रोह
विद्रोह का नेतृत्व अंतिम मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब (धोंदूपंत) ने किया। इसमें उनकी सहायता तात्या टोपे ने की, जिनका वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग था। नाना साहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर 5 जून-1857 को अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। कानपुर में विद्रोह दिसंबर-1857 तक चला। जनरल हीलर ने आत्मसमर्पण कर दिया।
झाँसी में विद्रोह
रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में जून-1857 में विद्रोह की शुरुआत हुई। झाँसी के शासक राजा गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात लॉर्ड डलहौजी ने राजा के दत्तक पुत्र को झाँसी का राजा मानने से इंकार कर दिया तथा 'व्यपगत के सिद्धांत' के आधार पर झाँसी को कंपनी साम्राज्य में मिला लिया। तदुपरांत, गंगाधर राव की विधवा महारानी लक्ष्मीबाई ने 'मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी' का नारा बुलंद करते हुए विद्रोह का मोर्चा संभाला।
झाँसी का विद्रोह जून-1857 से जून-1858 तक चला। ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मीबाई को युद्ध के मैदान में मौत के घाट उतार दिया।
तात्या टोपे ने अंग्रेजों को सर्वाधिक परेशान किया, इन्होंने झाँसी की रानी की सहायता की थी। ग्वालियर के सिंधिया अंग्रेजों का समर्थन कर रहे थे। सिंधिया की अस्वीकृति के बावजूद ग्वालियर की सेना व जनता ने तात्या टोपे का सहयोग किया। तात्या टोपे ने गुरिल्ला युद्धों द्वारा विद्रोह को नया आयाम दिया, किंतु उनके विश्वासघाती मित्र मानसिंह ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। अंतत: 1859 में ग्वालियर में तात्या टोपे को फाँसी दे दी गई।
अन्य स्थानों पर विद्रोह
जगदीशपुर के जमींदार कुँवर सिंह के ऊपर अंग्रेजी शासन का लगान बकाया था। विद्रोह को देखते हुए कुँवर सिंह ने अंग्रेजों को लगान माफ करने के लिए कहा, लेकिन अंग्रेजों ने इसे अस्वीकार कर दिया। अत: कुँवर सिंह ने विद्रोहियों का साथ दिया। कुँवर सिंह की मृत्यु के बाद विद्रोह का नेतृत्व इनके भाई अमर सिंह ने किया। अंत में विलियम टेलर एवं विसेंट आयर ने यहाँ विद्रोह को दबा दिया।
फैजाबाद में विद्रोह का नेतृत्व अहमदुल्लाह ने किया। यहाँ के विद्रोह को कैंपबेल द्वारा दबाया गया। इलाहाबाद में विद्रोह का नेतृत्व मौलवी लियाकत अली खान द्वारा किया गया, जिसका दमन जनरल नील द्वारा किया गया। विद्रोह के दौरान तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने इलाहाबाद को आपातकालीन मुख्यालय बनाया।
रोहिलखण्ड के पूर्व शासक के उत्तराधिकारी बहादुर खान ने स्वयं को बरेली का सम्राट घोषित किया। कंपनी द्वारा निर्धारित की गई पेंशन से असंतुष्ट होकर अपने 40 हजार सैनिकों की सहायता से बहादुर खान ने लंबे समय तक विद्रोह का झंडा बुलंद किया।
लगभग संपूर्ण उत्तर भारत में विद्रोह का प्रसार हुआ। अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर को हुमायूँ के मकबरे में कैद किया था। इसके बाद उन्हें भारत से बाहर रंगून में निर्वासित कर दिया गया, जहाँ 1862 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। बेगम हजरत महल एवं नाना साहब नेपाल चले गए।
1857 का विद्रोह लगभग एक वर्ष तक चला, परंतु अंग्रेजों द्वारा पुरजोर तरीके से दमन किया गया, जिससे यह जुलाई-1858 तक पूर्णतया शांत हो गया।
1857 के विद्रोह के विषय में विद्वानों के मत
विद्वानों ने 1857 के विद्रोह को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है। नीचे एक तालिका में उनके मत संक्षेपित हैं:
विद्वान | मत |
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विनायक दामोदर सावरकर | यह भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम था। |
बेंजामिन डिजरैली | 1857 का विद्रोह राष्ट्रीय विद्रोह था। |
टी.आर. होम्स | यह सभ्यता एवं बर्बरता के बीच संघर्ष था। |
आर.सी. मजूमदार | 1857 का विद्रोह न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था। |
अशोक महता | यह भारत का स्वतंत्रता संग्राम था। |
जॉन लॉरेंस एवं सीले | यह सैनिक विद्रोह था। |
एस.बी. चौधरी | यह सामान्य जनता का विद्रोह था। |
जवाहरलाल नेहरू | इसे मात्र सैनिक विद्रोह नहीं कहा जा सकता; इसका वास्तविक स्वरूप सामंतवादी था लेकिन इसमें राष्ट्रवाद के तत्व भी मौजूद थे। |
पी.सी. जोशी | राष्ट्रीय एवं सामान्य जनता तक फैला हुआ यह प्रथम विप्लव था। |
डब्ल्यू टेलर व जेम्स आउट्रम | 1857 का विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दुओं तथा मुसलमानों का षड्यंत्र था। |
एल.ई.आर. रीज | यह ईसाइयों के विरुद्ध भारतीयों का धार्मिक विद्रोह था। |
एस.एन. सेन | अंग्रेजी साम्राज्य के संविधान में इस विद्रोह की जड़ को ढूंढ़ा जा सकता है। इसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम नहीं कहा जा सकता किंतु सैनिक विद्रोह कहना भी गलत है। |
1857 के विद्रोह से संबंधित प्रमुख पुस्तकें एवं उनके लेखक
नीचे कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें और उनके लेखक दिए गए हैं:
पुस्तक नाम | लेखक |
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1857 | एस. एन. सेन |
रिबेलियन 1857 | पी. सी. जोशी |
द सिपाही म्यूटिनी एंड रिवोल्ट ऑफ 1857 | आर. सी. मजूमदार |
पुनर्जागरण: ब्रिटिश सत्ता एवं भारतीय | आर. सी. मजूमदार |
1857 एक महान विद्रोह | अशोक मेहता |
भारतीय स्वतंत्रता का संग्राम | वी. डी. सावरकर |
द पीजेंट एंड द राज | एरिक थॉमस स्टोक्स |
सिविल रिबेलियन इन द इंडियन क्यूटनीस | शशि भूषण चौधरी |
1857 के विद्रोह का दमन
क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने निर्ममतापूर्ण तरीके से दबाया। तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड कैनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएँ मंगवाईं। जनरल नील के नेतृत्व में बनारस और इलाहाबाद की क्रांति को अमानवीय तरीके से दबाया गया। क्रांतिकारियों के अलावा जनसाधारण का भी कत्लेआम किया गया।
कमांडर इन चीफ जनरल एनसन ने रेजिमेंटों को आदेश देकर फिरोजपुर, जालंधर, फुलवर, अम्बाला आदि में जनसंहार करवाया। विद्रोही सैनिकों को तोप के मुंह पर रखकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिंदा जला दिया गया।
अंग्रेजों ने विद्रोह को न केवल सैन्य शक्ति से दबाया, बल्कि उन्होंने प्रलोभन और कूटनीति का भी सहारा लिया। यदि सिख, मद्रासी सैनिकों ने अंग्रेजी सरकार की सहायता न की होती, तो अंग्रेजी सरकार को क्रांतिकारियों को रोकना मुश्किल होता।
विद्रोह की शुरुआत अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समय में होने से भी अंग्रेजों को दबाने में सहायता मिली। विद्रोह को अंतत: कुचल दिया गया। ब्रिटिश ने एक लंबी एवं भयानक लड़ाई के पश्चात् 20 सितंबर, 1857 को दिल्ली पर कब्जा कर लिया। 1859 के अंत तक ब्रिटिश सत्ता भारत पर पुन: काबिज हो गई।
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण
- विद्रोहियों के मध्य सामंजस्यता का अभाव था, जिससे कोई ठोस नीति का निर्माण नहीं हो सका।
- विद्रोहियों का नेतृत्व कमजोर था तथा संगठन, अनुशासन, सामूहिक योजना का अभाव, गुटबंदी व आधुनिक हथियारों की कमी भी असफलता के प्रमुख कारण थे।
- इस विद्रोह में जमींदार वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, साहूकार वर्ग के लोग शामिल नहीं हुए थे।
- भारतीय शासकों जैसे – सिंधिया, निजाम, गायकवाड़, आदि ने अंग्रेजों का साथ दिया। लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि यदि सिंधिया भी विद्रोह में शामिल हो गया होता तो अंग्रेजों को बहुत जल्द अपना बिस्तर गोल करना पड़ता।
- विद्रोह के बाद कई रियासत के राजाओं को ब्रिटिश शासन द्वारा इसलिए सम्मानित किया गया क्योंकि उन्होंने विद्रोह के समय ब्रिटिशों का सहयोग किया था।
- अंग्रेजी सेना की श्रेष्ठता तथा आधुनिक हथियारों की उपलब्धता ने भी भारतीयों की असफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1857 के विद्रोह के परिणाम
स्वतंत्रता संग्राम की दृष्टि से भले ही यह असफल था, परंतु इसने मुगल वंश के शासन का अंत कर दिया।
ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत पर शासन के सभी अधिकार वापस ले लिए, तथा ब्रिटिश महारानी को भारत साम्राज्ञी घोषित किया गया।
गवर्नर जनरल के स्थान पर वायसराय का पद सृजित किया गया तथा कैनिंग को भारत का प्रथम वायसराय बनाया गया।
ब्रिटिश साम्राज्य विस्तार पर रोक लगाई, भारतीयों के धार्मिक मामलों में अहस्तक्षेप, एक समान कानूनी सुरक्षा, भारतीयों के प्राचीन रीति-रिवाजों की सुरक्षा के वायदे, 1858 के भारत शासन अधिनियम द्वारा किए गए।
सेना में भारतीय एवं अंग्रेजी सैनिकों के मध्य अनुपात को बदला गया।
1858 के भारत शासन अधिनियम द्वारा भारत का राज्य सचिव पद सृजित किया गया तथा इसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद की स्थापना की गई।
भारत का राज्य सचिव केबिनेट का सदस्य होता था, जो ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था।
1857 के विद्रोह का महत्व
1857 के विद्रोह की विफलता ने भारतीयों को यह आभास कराया कि केवल सैन्य बल से सफलता नहीं पाई जा सकती, बल्कि सभी वर्गों का सहयोग, समर्थन और राष्ट्रीय भावना भी आवश्यक है।
इस विद्रोह से भारतीयों में विदेशी सत्ता के विरुद्ध एकता व राष्ट्रीय भक्ति के बीज बो दिए गए।
विद्रोह के बाद ब्रिटिश भारत सरकार की नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ तथा भारतीयों को शासन में भागीदारी के अवसर मिलने लगे।