न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)

न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जिसमें न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की संवैधानिक वैधता की जाँच करती है। यह प्रक्रिया शासन के तीनों अंगों—विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका—के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह लेख न्यायिक पुनरावलोकन के संवैधानिक आधार, सीमाओं, और महत्वपूर्ण मामलों को विस्तार से बताता है।


न्यायिक पुनरावलोकन का संवैधानिक आधार

न्यायिक पुनरावलोकन भारतीय संविधान का अभिन्न अंग है, जो शासन के अंगों को संवैधानिक सीमाओं में रखता है। इसके प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:

  • अनुच्छेद-13(2): यह स्पष्ट करता है कि राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बना सकता जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करे। यदि कोई कानून या अध्यादेश मूल अधिकारों को कमजोर करता है, तो न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है।
  • संघीय व्यवस्था: भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है। सातवीं अनुसूची के तहत यदि कोई कानून इस विभाजन का उल्लंघन करता है, तो न्यायपालिका उसे रद्द कर सकती है।
  • उदाहरण: पाई फाउंडेशन वाद (2005) में सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यकों के शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जो न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को दर्शाता है।

हालांकि, कुछ विद्वान मानते हैं कि भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। फिर भी, अनुच्छेद-13(2), अनुच्छेद-32, और अनुच्छेद-226 जैसे प्रावधान इसे निहित रूप से समर्थन देते हैं, जो इसे अमेरिकी शैली की न्यायिक सर्वोच्चता से अलग बनाता है।


न्यायिक पुनरावलोकन की सीमाएँ

भारतीय संविधान ने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को स्वीकार किया है, लेकिन शासन के अंगों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए इसकी कुछ सीमाएँ भी निर्धारित की हैं:

  • मंत्रिपरिषद् की सलाह: अनुच्छेद-74 और अनुच्छेद-163 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल को दी गई मंत्रिपरिषद् की सलाह की जाँच न्यायपालिका नहीं कर सकती।
  • राष्ट्रपति/राज्यपाल के नाम पर विधियाँ: ऐसी विधियों की वैधता का परीक्षण नहीं किया जा सकता कि क्या वे किसी और ने बनाई हैं।
  • संसदीय विशेषाधिकार: अनुच्छेद-105 और अनुच्छेद-194 के तहत संसद और विधायिकाओं के विशेषाधिकारों का न्यायिक पुनरावलोकन नहीं हो सकता।
  • संसदीय प्रक्रियाएँ: संसद या विधायिका की प्रक्रियाओं की वैधानिकता की जाँच नहीं की जा सकती, जब तक कि वे स्पष्ट रूप से अवैध न हों।
  • अंतर्राज्यीय जल विवाद: अनुच्छेद-262 के तहत ये मामले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे से बाहर हैं।
  • निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन: अनुच्छेद-329 के तहत इसका पुनरावलोकन नहीं हो सकता।
  • राष्ट्रपति/राज्यपाल के विशेषाधिकार: उनके कुछ कार्यों को संवैधानिक छूट प्राप्त है।

ये सीमाएँ सुनिश्चित करती हैं कि भारत में न्यायिक सर्वोच्चता के बजाय संवैधानिक सर्वोच्चता का सिद्धांत लागू हो।


संसदीय विशेषाधिकार और न्यायिक पुनरावलोकन

संसदीय विशेषाधिकार सांसदों और संसद को दिए गए विशेष अधिकार हैं, जो सामान्य नागरिकों को उपलब्ध नहीं हैं। अनुच्छेद-105 और अनुच्छेद-194 के तहत सांसदों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अन्य विशेषाधिकार प्राप्त हैं। हालांकि, इन विशेषाधिकारों और न्यायिक पुनरावलोकन के बीच कई बार टकराव हुआ है। प्रमुख मामले निम्नलिखित हैं:

  • सर्चलाइट वाद (1959): सुप्रीम कोर्ट ने संसदीय विशेषाधिकारों को अनुच्छेद-19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) से ऊपर माना।
  • केशव सिंह वाद (1965): उच्चतम न्यायालय ने सलाहकारी अधिकारिता में स्पष्ट किया कि संसदीय विशेषाधिकारों के नाम पर जीवन का अधिकार, अपराधों से संरक्षण, या मनमानी गिरफ्तारी के खिलाफ अधिकार का उल्लंघन नहीं हो सकता।
  • नरसिंह राव वाद (1998): इस मामले में संसद की कार्यवाही के आधार पर नरसिंह राव को बरी किया गया, जिसने विशेषाधिकारों के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के सवाल उठाए।
  • किहोतो होलोहॉन वाद (1992): सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि स्पीकर के दल-बदल निर्णय का न्यायिक पुनरावलोकन संभव है, क्योंकि उनकी भूमिका अर्द्ध-न्यायिक है।
  • झारखण्ड विधान सभा मामला (2005): न्यायपालिका ने विश्वास मत की तिथि और प्रक्रिया तय की, जिसे संसदीय विशेषाधिकारों का उल्लंघन माना गया।
  • मथलैयागन वाद: यदि संसदीय प्रक्रिया स्वयं अवैध हो, तो उसका न्यायिक पुनरावलोकन संभव है।

ये मामले दर्शाते हैं कि न्यायपालिका संसदीय विशेषाधिकारों का सम्मान करती है, लेकिन संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए आवश्यक हस्तक्षेप भी करती है।


सामान्य विधानों और अध्यादेशों का न्यायिक पुनरावलोकन

सामान्य विधानों और अध्यादेशों का न्यायिक पुनरावलोकन तब होता है जब वे निम्नलिखित आधारों पर संवैधानिकता का उल्लंघन करते हैं:

  • मूल अधिकारों का उल्लंघन: यदि कोई कानून अनुच्छेद-14, 19, 21 जैसे मूल अधिकारों का हनन करता है, तो उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।
  • संघीय शक्ति विभाजन: यदि केंद्र या राज्य सरकार सातवीं अनुसूची में निर्धारित अपनी विधायी शक्तियों का अतिक्रमण करती है, तो वह कानून रद्द हो सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि केंद्र सरकार राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाती है, तो सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।


संवैधानिक संशोधनों का न्यायिक पुनरावलोकन

संवैधानिक संशोधनों का न्यायिक पुनरावलोकन भारत में एक विवादास्पद और महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। प्रमुख मामले और विकास निम्नलिखित हैं:

  • प्रथम संशोधन (1951): नौवीं अनुसूची की स्थापना की गई, जिसमें शामिल कानूनों को न्यायिक प Australia से बाहर रखने का प्रयास किया गया।
  • 24वाँ और 25वाँ संशोधन (1971): इनके द्वारा संवैधानिक संशोधनों को पुनरावलोकन से बाहर करने की कोशिश की गई, लेकिन केशवानंद भारती वाद (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने आधारभूत ढांचा सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसमें कहा गया कि संवैधानिक संशोधन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं कर सकते।
  • 39वाँ संशोधन (1975): राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और स्पीकर के चुनाव को पुनरावलोकन से बाहर करने का प्रयास इंदिरा बनाम राज नारायण वाद (1975) में असंवैधानिक घोषित हुआ।
  • 42वाँ संशोधन (1976): अनुच्छेद-368(4), (5) के तहत संशोधनों को पुनरावलोकन से बाहर करने की कोशिश मिनर्वा मिल्स वाद (1980) में रद्द की गई।

इन निर्णयों ने सुनिश्चित किया कि न्यायिक पुनरावलोकन संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है और संवैधानिक संशोधनों की वैधता की जाँच संभव है।


निष्कर्ष

न्यायिक पुनरावलोकन भारतीय संविधान का एक मजबूत स्तंभ है, जो विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों को संवैधानिक सीमाओं में रखता है। केशवानंद भारती, मिनर्वा मिल्स, और अन्य ऐतिहासिक मामलों ने इसे संविधान की मूल संरचना का हिस्सा बनाया है। हालांकि, संसदीय विशेषाधिकार, मंत्रिपरिषद् की सलाह, और अन्य क्षेत्रों में इसकी सीमाएँ सुनिश्चित करती हैं कि यह शक्ति संतुलन को बनाए रखे। यह प्रक्रिया भारत के लोकतांत्रिक ढांचे और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

क्या आप न्यायिक पुनरावलोकन के किसी ऐतिहासिक मामले के बारे में अधिक जानना चाहेंगे? अपनी राय कमेंट में साझा करें !

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