1919 का भारत सरकार अधिनियम : मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार

 नमस्कर ! अगर आप भारतीय इतिहास में रुचि रखते हैं, तो 1919 का भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act 1919) एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इसे मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (Montagu-Chelmsford Reforms) के नाम से भी जाना जाता है। इस लेख में हम इस अधिनियम की पृष्ठभूमि, मुख्य प्रावधान, दोष और महत्व पर विस्तार से चर्चा करेंगे। यह अधिनियम ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में राजनीतिक सुधारों का एक बड़ा कदम था, जो प्रथम विश्व युद्ध और होमरूल आंदोलन जैसी घटनाओं से प्रभावित हुआ।

अगर आप भारतीय स्वतंत्रता संग्राम या UPSC/SSC जैसी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, तो यह जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी साबित होगी। चलिए, विस्तार से समझते हैं।

अधिनियम की पृष्ठभूमि और जन्मदाता

1919 ई. के अधिनियम को मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है। इसके मुख्य जन्मदाता थे:

  • भारत सचिव एडविन मॉण्टेग्यू (Edwin Montagu)
  • भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड चेम्सफोर्ड (Lord Chelmsford)

यह अधिनियम ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में सुधारों का एक प्रयास था। 20 अगस्त 1917 को लॉर्ड मॉण्टेग्यू ने ब्रिटिश संसद में एक घोषणा की, जिसमें भारत में स्वशासन की दिशा में कदम उठाने का संकेत दिया गया। 1918 में मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड की संयुक्त रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसके आधार पर ब्रिटिश संसद ने 1919 का भारत सरकार अधिनियम पारित किया।

कारण:

  • भारतीयों द्वारा सुधारों की मांग
  • होमरूल आंदोलन (Home Rule Movement)
  • प्रथम विश्व युद्ध (World War I) के दौरान भारतीयों का सहयोग

यह अधिनियम 1921 से लागू हुआ और भारत में राजनीतिक परिवर्तनों की नींव रखी।

उत्तरदायी शासन की स्थापना

इस अधिनियम की सबसे बड़ी विशेषता प्रांतों में आंशिक उत्तरदायी सरकार (Dyarchy) की स्थापना थी। प्रांतीय कार्यपालिका को दो भागों में विभाजित किया गया:

  • पार्षद (Councillors): गवर्नर के प्रति उत्तरदायी
  • मंत्री (Ministers): प्रांतीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी

प्रांतीय विषयों को भी दो श्रेणियों में बांटा गया:

  1. संरक्षित विषय (Reserved Subjects): जैसे कानून-व्यवस्था, सिंचाई, वित्त। ये कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों के अधीन थे, जो गवर्नर के प्रति जवाबदेह थे।
  2. हस्तांतरित विषय (Transferred Subjects): जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि। ये लोकप्रिय मंत्रियों के अधीन थे, जो विधानसभा के निर्वाचित बहुमत से चुने जाते थे और विधानसभा के प्रति जवाबदेह थे।

यह व्यवस्था प्रांतों में लोकतांत्रिक तत्वों को बढ़ावा देने का प्रयास थी, लेकिन केंद्र में कोई बदलाव नहीं हुआ।

विषयों का विभाजन: केंद्र और प्रांतों के बीच

अधिनियम ने केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया:

  • केंद्रीय विषय: राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे जैसे रक्षा, विदेश नीति, रेलवे।
  • प्रांतीय विषय: स्थानीय मुद्दे जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन।

मुख्य बदलाव:

  • प्रांतों पर केंद्र का नियंत्रण कम हुआ।
  • प्रांतीय बजट केंद्र से अलग कर दिए गए।
  • प्रांतों को ऋण लेने और कर लगाने का अधिकार मिला।
  • प्रांतीय विधेयक बिना केंद्र की अनुमति के पेश किए जा सकते थे।

हालांकि, केंद्र में अनुत्तरदायी शासन (Irresponsible Government) बरकरार रहा।

केंद्र में द्विसदनात्मक विधानमंडल

1919 के अधिनियम ने केंद्र में विधान परिषद को द्विसदनात्मक विधानमंडल (Bicameral Legislature) में बदल दिया:

  • राज्य परिषद (Council of State): 60 सदस्य (33 निर्वाचित + 27 मनोनीत)।
  • केंद्रीय विधानसभा (Central Legislative Assembly): 140 सदस्य (83 निर्वाचित + शेष मनोनीत)।

शक्तियां:

  • प्रत्यक्ष निर्वाचन की शुरुआत।
  • मताधिकार का विस्तार (लगभग 10% आबादी को वोटिंग राइट)।
  • सदस्यों को प्रश्न, पूरक प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव पास करने का अधिकार।
  • विधानमंडल की शक्तियों में वृद्धि, लेकिन वायसराय को वीटो पावर थी।

सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का विस्तार

अधिनियम ने सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को और मजबूत किया:

  • मुसलमानों के अलावा सिख, आंग्ल-भारतीय, यूरोपीय और ईसाई समुदायों को अलग प्रतिनिधित्व।
  • यह "विभाजन और शासन" (Divide and Rule) नीति का हिस्सा माना जाता है।

भारत परिषद का पुनर्गठन

  • सदस्य संख्या: न्यूनतम 8 से अधिकतम 12।
  • कम से कम आधे सदस्यों को भारत में 10 वर्ष का अनुभव और भारत छोड़ने के 5 वर्ष से कम समय।
  • कार्यकाल: 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष।

नरेश मंडल (Chamber of Princes)

  • सुझाव: देशी रियासतों के लिए एक परामर्शदात्री सभा।
  • स्थापना: 8 फरवरी 1921, दिल्ली में।
  • सदस्य: 121 देशी रजवाड़े + अध्यक्ष के रूप में वायसराय।
  • भूमिका: सलाहकारी, कोई बाध्यकारी शक्ति नहीं।

प्रांतीय विधान परिषदों में बदलाव

  • सदस्य संख्या में वृद्धि: बड़े प्रांतों में अधिकतम 140, छोटे में न्यूनतम 60।
  • 70% निर्वाचित, 20% सरकारी मनोनीत, 10% गैर-सरकारी मनोनीत।
  • प्रांतीय कार्यकारिणी में भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई (जैसे मद्रास, बॉम्बे, बंगाल में 4 में से 2 भारतीय)।
  • केंद्र की कार्यकारिणी में भी अधिक भारतीयों की नियुक्ति।

अधिनियम के मुख्य दोष

1919 के अधिनियम में कई कमियां थीं, जिन्होंने इसे विवादास्पद बनाया:

  1. केंद्र में उत्तरदायी शासन की कमी: केंद्र पूरी तरह ब्रिटिश नियंत्रण में रहा।
  2. सांप्रदायिक निर्वाचन का विस्तार: इससे साम्प्रदायिक विभाजन बढ़ा, जो बाद में विभाजन का कारण बना।
  3. सीमित मताधिकार: केवल संपत्ति आधारित वोटिंग, महिलाओं को सीमित अधिकार।
  4. गवर्नर की असीमित शक्तियां: वीटो और प्रमाणन पावर से सुधार नाममात्र के रहे।
  5. आर्थिक संसाधनों का असमान वितरण: प्रांतों को पर्याप्त फंड नहीं मिले।

अधिनियम का महत्व और उपलब्धियां

इस अधिनियम ने भारत के राजनीतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई:

  1. प्रांतों में उत्तरदायी शासन की शुरुआत: पहली बार मंत्री विधानसभा के प्रति जवाबदेह बने।
  2. ब्रिटिश शासन के उद्देश्य की घोषणा: स्वशासन की ओर कदम का स्पष्ट संकेत।
  3. मताधिकार में वृद्धि: अधिक लोगों को वोटिंग राइट मिली।
  4. शासकीय सेवाओं का भारतीयकरण: भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्ति बढ़ी।
  5. राजनीतिक प्रशिक्षण: भारतीय नेताओं को अनुभव मिला, जो बाद के आंदोलनों में उपयोगी हुआ।
  6. विधानमंडलों का विस्तार: अधिक सदस्य और शक्तियां।
  7. स्थानीय स्वशासन का विकास: नगरपालिकाओं और ग्रामीण बोर्डों को मजबूती।

यह अधिनियम गांधीजी और कांग्रेस द्वारा अस्वीकार किया गया, क्योंकि यह पूर्ण स्वराज से बहुत दूर था। फिर भी, यह 1935 के अधिनियम की नींव रखता है।

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