ब्रिटिश काल की भू-राजस्व व्यवस्थाएं
ब्रिटिश काल की भू-राजस्व व्यवस्थाएं
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान लागू की गई भू-राजस्व व्यवस्थाओं ने देश की अर्थव्यवस्था और किसानों की स्थिति पर गहरा प्रभाव डाला। इस लेख में हम ब्रिटिश काल की प्रमुख भू-राजस्व प्रणालियों—जमींदारी व्यवस्था, रैयतवाड़ी व्यवस्था और महालवाड़ी व्यवस्था—का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
परंपरागत भू-राजस्व व्यवस्था और ब्रिटिश हस्तक्षेप
भारत में अंग्रेजी शासन से पूर्व परंपरागत भू-राजस्व व्यवस्था व्याप्त थी। इस व्यवस्था के अनुसार, किसान अपनी उपज का कुछ हिस्सा राजा को राजस्व के रूप में देते थे। 1765 ई. की इलाहाबाद की संधि से अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्राप्त कर लिए तथा भू-राजस्व की व्यवस्था को व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया।
वारेन हेस्टिंग्स ने भू-राजस्व की वसूली की समस्या को सुलझाने का प्रयास किया। इसमें पांच साला (पंचवर्षीय) योजना से फार्मिंग पद्धति को अपनाया गया। इसके तहत राजस्व वसूली के लिए यूरोपीय कलक्टरों की नियुक्ति की गई। यह व्यवस्था नीलामी (ठेका प्रणाली) पद्धति पर आधारित थी। परंतु यह इजारेदारी (ठेका प्रणाली) अंततः असफल हुई।
ब्रिटिश भू-राजस्व की प्रमुख व्यवस्थाएं
अंग्रेजों ने भारत में भू-राजस्व वसूली के लिए मुख्य रूप से तीन व्यवस्थाएं लागू कीं:
- जमींदारी या स्थायी बंदोबस्त
- रैयतवाड़ी व्यवस्था
- महालवाड़ी व्यवस्था
(1) जमींदारी या स्थायी बंदोबस्त
1793 ई. में लॉर्ड कॉर्नवालिस ने बंगाल में वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित ठेका पद्धति (इजारेदारी) को समाप्त कर स्थायी बंदोबस्त लागू किया। प्रारंभ में इस व्यवस्था में निम्न समस्याएं सामने आईं:
- समझौता किसान से किया जाए या जमींदार से।
- राज्य को लगान कितना लेना चाहिए।
- इस समझौते को कुछ वर्षों के लिए किया जाए या स्थायी समझौता किया जाए।
कॉर्नवालिस ने इन समस्याओं को इंगित करते हुए जॉन शोर एवं जेम्स ग्रांट को सुझाव देने के लिए नियुक्त किया। जहां जेम्स ग्रांट कंपनी को मालिक बनाने के पक्ष में थे, वहीं जॉन शोर जमींदारों को जमीन का मालिक बनाने के पक्ष में थे। अंततः कॉर्नवालिस ने जॉन शोर के सुझाव मानते हुए 1790 ई. में नीलामी के आधार पर जमींदारों को 10 वर्ष के लिए जमींदारी देने का निर्णय किया। परंतु इस व्यवस्था को 3 वर्ष बाद ही 1793 ई. में स्थायी कर दिया गया।
इस प्रकार स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था द्वारा जमीन सदैव जमींदार को दे दी गई, इसलिए इसे ‘जमींदारी व्यवस्था’ भी कहा गया। इस व्यवस्था को बंगाल, बिहार, उड़ीसा, यू.पी. की बनारस एवं उत्तरी कर्नाटक में लागू किया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भारत का 19% भाग सम्मिलित था।
स्थायी बंदोबस्त की विशेषताएं
- जमींदारों को भूमि का स्थायी मालिक बना दिया गया।
- जमींदार भूमि के मालिक होने के कारण भूमि को बेच सकते थे तथा अपने वैध उत्तराधिकारियों को दे सकते थे।
- जमींदारों द्वारा किसान से वसूले गए भू-राजस्व का 10/11 भाग (89%) कंपनी को देता था तथा 1/11 (11%) स्वयं रखता था।
- यदि किसी जमींदार द्वारा तय तारीख तक भू-राजस्व की निर्धारित राशि जमा नहीं करवाने पर उसकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी।
- स्थायी बंदोबस्त प्रणाली से कंपनी की आय में वृद्धि हुई।
स्थायी बंदोबस्त के उद्देश्य
स्थायी बंदोबस्त के लाभ
जमींदार वर्ग के लाभ:
- इस व्यवस्था द्वारा जमींदार वर्ग भूमि के स्थायी मालिक बन गए।
- लगान की निश्चित रकम देने के पश्चात भी जमींदारों के पास काफी धनराशि बचती थी, जिससे जमींदार समृद्ध हो गए।
कंपनी को लाभ:
- जमींदारों के रूप में ऐसा वर्ग कंपनी को मिला जो प्रत्येक परिस्थिति में कंपनी की सहायता को तैयार था।
- कंपनी की आय में अत्यधिक वृद्धि हुई।
- कंपनी के प्रशासनिक व्यय में कमी आई, जिससे प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि हुई।
- कंपनी ने जमींदारों के माध्यम से सामाजिक सौहार्द बढ़ाने का प्रयास किया।
स्थायी बंदोबस्त की हानियां
जमींदार वर्ग की हानियां:
- सूर्यास्त कानून के तहत यदि अंतिम तिथि के सूर्यास्त तक भू-राजस्व जमा नहीं करवाने पर जमींदार की जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी।
कंपनी की हानि:
- कंपनी को भू-राजस्व की निश्चित दरों के कारण नुकसान उठाना पड़ता था क्योंकि उत्पादन में वृद्धि होने पर भी जमींदार द्वारा निश्चित राजस्व ही जमा करवाया जाता था, जिससे जमींदार की आय में वृद्धि हुई परंतु कंपनी को इसका नुकसान उठाना पड़ता था।
किसानों की हानियां:
- इस व्यवस्था का सर्वाधिक नुकसान किसानों को उठाना पड़ा। किसानों का जमींदारों द्वारा अत्यधिक शोषण किया गया।
- कृषि में निवेश नहीं हुआ, जिससे किसान निर्धन होते गए।
- जमींदारों द्वारा भी भू-राजस्व को ठेके पर दे दिया। ये अनावश्यक भू-मध्यस्थ उत्पादन में असहायक थे, जबकि इनका खर्च भी किसानों पर लाद दिया गया।
(2) रैयतवाड़ी व्यवस्था
स्थायी बंदोबस्त के पश्चात, ब्रिटिश सरकार ने भू-राजस्व की नई पद्धति अपनाई जिसे रैयतवाड़ी बंदोबस्त कहा जाता है। ‘रैयत’ का शाब्दिक अर्थ किसान होता है। इस व्यवस्था में किसान/रैयत को भूमि का मालिक बनाया जाता है। यह व्यवस्था स्थायी बंदोबस्त के दोषों को दूर करने के लिए लाई गई थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भारत की 51% भूमि आती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था बॉम्बे, मद्रास तथा असम में लागू की गई थी।
इस व्यवस्था का प्रारंभ 1792 ई. में जॉन रीड द्वारा बारामहल से किया गया था, परंतु वास्तविक रूप से लागू करने का श्रेय थॉमस मुनरो को है जबकि एल्फिन्स्टन ने इसे लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भू-राजस्व की इस व्यवस्था के अंतर्गत सरकार ने सीधा बंदोबस्त रैयतों/किसानों से किया। इस प्रकार रैयतों/किसानों को मालिकाना हक दिया गया तथा व्यक्तिगत रूप से सरकार को लगान देने के लिए उत्तरदायी बनाया गया। अतः इस व्यवस्था से जमींदारों की मध्यस्थता को समाप्त किया गया।
रैयतवाड़ी व्यवस्था के लाभ
- जमींदारों की मध्यस्थता समाप्त हो गई तथा किसानों के साथ कंपनी के प्रत्यक्ष संबंध स्थापित हुए।
रैयतवाड़ी व्यवस्था की हानियां
- जिन मध्यस्थों को हटाने के लिए यह व्यवस्था बनाई गई थी, वे तो हट गए परंतु सरकारी अधिकारियों ने इनकी जगह ले ली।
- इस व्यवस्था द्वारा किसानों का शोषण हुआ, जिससे किसान महाजनों के चंगुल में फंस गए।
(3) महालवाड़ी व्यवस्था
यह व्यवस्था जमींदारी व्यवस्था के बदले हुए रूप में अपनाई गई। इस व्यवस्था को लागू करने का श्रेय होल्ट मैकेंजी एवं मार्टिन बर्ड को दिया जाता है। यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 30% भाग पर लागू थी।
‘महाल’ का शाब्दिक अर्थ ‘गांव/गांवों का समूह’ है। जिसके तहत गांव को इकाई मानते हुए संपूर्ण गांव का भू-राजस्व निर्धारित कर दिया जाता था। भू-राजस्व देने का सामूहिक उत्तरदायित्व गांव की पंचायत का होता था। यह व्यवस्था मुख्यतः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रांत तथा पंजाब में लागू की गई थी।
गांव का मुखिया या लंबरदार राजस्व के संग्रह के लिए अधिकृत था। लगान निर्धारण में मानचित्रों का प्रयोग किया गया।
महालवाड़ी व्यवस्था की कमियां
- भू-राजस्व की दरों का अधिक होना (लगभग 60%) किसानों को शोषित करना था।
- कुछ लोगों के कर चुकाने में असमर्थ होने पर उसका खामियाजा संपूर्ण गांव को भुगतना पड़ता था।
- इस व्यवस्था से सरकार एवं किसानों के प्रत्यक्ष संबंध पूर्णतः समाप्त हो गए।